आयुर्वेद में छिपा है किडनी का इलाज
गुर्दे किडनी के कई रोग बहुत गंभीर होते हैं क्योंकि किडनी मानव शरीर का महत्वपूर्ण अंग है इनकी खराबी किसी गंभीर रोग या मौत का कारण बन सकता है किडनी की संरचना अत्यंत जटिल है किडनी मूत्र (यूरिन) बनती है शरीर से मूत्र निकालने का कार्य मूत्र वाहिनी (ureter) मूत्राशय (urinary bladder) तथा मुत्रनालिका (urethra) द्वारा होता है|


किडनी के मुख्य कार्य
1.हानिकारक अपशिष्ट (waste) पदार्थो को शरीर हटाकर रक्त शुद्ध करना
2.शरीर में पानी तरल पदार्थो खनिज पदार्थ (सोडियम पोटशियम ) को संतुलित मात्रा में रखना
3.रक्त कण के निर्माण में सहयोग करना
4.खून दबाव ( blood pressure)का नियंत्रण
5.हड्डियों की मजबूती म सहायक
किडनी रोगों के मुख्य लक्षण
1.पीठ के निचले हिस्से में दर्द खुजली और पैरों में ऐठन
2.बच्चो का धीमा विकास छोटा कद पैरो की हड्डियो का मुड़ना
3.चेहरा की सूजन पेट और पैरों की सूजन किडनी रोगों के कारण हो सकती है
4.जल्दी थकान होना शरीर मैं पीलापन खून की कमी किडनी रोगों की प्राथमिक लक्षण हो सकते हैं
5.मूत्र में जलन मूत्र की मात्रा कम या अधिक होना बार बार होना मूत्र में रक्त मवाद मूत्र त्याग में कठिनाई
6.भूख की कमी मितली उल्टी मुंह में असामान्य स्वाद लगना किडनी की बिगड़ती दशा के कारण विषाक्त पदार्थो के स्तर में वृद्धि के कारण होता है
7.किडनी के रोगों के कारण उच्च रक्तचाप (hypertension) सामान्य लक्षण ह यदि उच्च रक्तचाप 30 वर्ष से पहले हो तो किडनी की जांच अवश्य करवानी चाहिए
किडनी रोग
किडनी फेल्योर
एक्यूट किडनी फेल्योर
क्रोनिक किडनी डिजीज
पेशाब का संक्रमण
नेफ्रोटिक सिन्ड्रोम
पथरी की बीमारी
प्रोस्टेट की बीमारी – बी. पी. एच.
किडनी फेल्योर
किडनी की फिल्टर करने एवं अपशिष्ट उत्पादों को निकालने एवं इलेक्ट्रोलाइट संतुलन को बनाए रखने की क्षमता में उल्लेखनीय कमी को किडनी फेल्योर कहते है। खून में क्रीएटिनिन और रक्त यूरिया नाइट्रोजन की मात्रा में वृध्दि का तात्पर्य किडनी की खराबी से होता है।
किडनी फेल्योर के दो प्रकार होते हैं:
किडनी की कार्यक्षमता में अचानक आई कमी या नुकसान को किडनी की विफलता या एक्यूट रीनल फेल्योर या एक्यूट किडनी इंज्यूरी – ए. के. आई कहते हैं। कई मरीज जो ए. के. आई से ग्रस्त हैं उनमें पेशाब की मात्रा कम हो जाती है। एक्यूट किडनी फेल्योर होने के मुख्य कारण दस्त-उल्टी का होना, मलेरिया, खून का दबाव अचानक कम हो जाना, सेपसिस होना, कुछ दवाओं का सेवन जैसे दर्द निवारक दवाएँ आदि है। उचित दवा और आवश्यकता होने पर डायालिसिस के उपचार से इस प्रकार खराब हुई दोनों किडनी पुनः संर्पूण तरह से काम करने लगती है।
क्रोनिक किडनी फेल्योर, कई महीनों और सालों से किडनी की कार्यक्षमता में जो क्रमिक एवं धीमी गति से अपरिवर्तनीय नुकसान होता है उसे क्रोनिक किडनी फेल्योर – सी.के.डी. कहते हैं। इसमें किडनी की कार्य क्षमता धीरे- धीरे लगातार कम होती जाती है। लम्बी अवधि के बाद, किडनी लगभग पूरी तरह से काम करना बंद कर देती हैं। बीमारी की यह दशा जो जीवन के लिए खतरनाक हो उसे एण्ड स्टेज किडनी डिजीज या ई.इस.आर.डी. भी कहते हैं। कई महीनों और सालों से किडनी की कार्यक्षमता में जो क्रमिक धीमी गति से अपरिवर्तनीय नुकसान होता है उसे क्रोनिक किडनी फेल्योर कहते हैं। सी.के.डी. एक चुपचाप बढ़ने वाली खतरनाक बीमारी है और अक्सर किसी का ध्यान इस तरफ नहीं जाता है। सी.के.डी. के प्रारंभिक दौर में अत्यंत कम और गैर विशिष्ट लक्षण होते हैं। शरीर में सूजन आना, भूख कम लगना, उलटी आना, जी मिचलाना, कमजोरी महसूस होना, कम आयु में उच्च रक्तचाप होना इत्यादि इस रोग के मुख्य लक्षण है। क्रोनिक किडनी फेल्योर होने के दो मुख्य कारण डायाबिटीज (मधुमेह) और उच्च रक्तचाप हैं।
पेशाब की जाँच के दौरान उसमें प्रोटीन की उपस्थिति, रक्त में उच्च क्रीएटिनिन और सोनोग्राफी करने पर छोटी एवं संकुचित किडनी सी.के.डी. के महत्वपूर्ण संकेत है। सीरम क्रीएटिनिन की मात्रा किडनी की बीमारी दर्शाता है और समय के साथ उसकी मात्रा में वृध्दि होती जाती है। सी.के.डी. के प्रारंभिक दौर में, रोगियों का उचित दवाओं और खाने में पूरी तरह परहेज द्वारा उपचार किया जाता है। इस बीमारी को पूर्णतः ठीक करने का कोई विशेष इलाज नहीं है। इस बात को ध्यान में रखना चाहिए की जैसे-जैसे उम्र बढ़ती है किडनी की कार्यक्षमता वैसे-वैसे कम होने लगती है। अनुवांशिक बीमारी जैसे – डायाबिटीज और उच्च रक्तचाप अगर अनियंत्रित रहते हैं तो इसके असर से तेजी से किडनी की कार्यक्षमता में गिरावट और नुकसान हो सकता है। इस उपचार का उदेश्य इस रोग के बढ़ने की गति को धीमा करने, जटिलताओं को रोकने और लम्बी अवधि के लिए मरीज का स्वास्थ्य अच्छा रखना है। जब बीमारी (ESKD) की अवस्था बढ़ती है तो किडनी की 10% कार्य करने की क्षमता कम हो जाती हैं। किडनी अधिक खराब होने पर सामान्यत: क्रीएटिनिन 8 – 10 मिलीग्राम प्रतिशत से अधिक बढ़ जाए, तब दवा और परहेज के बावजूद भी मरीज की हालत में सुधार नहीं होता है। ऐसी स्थिति में उपचार के दो विकल्प डायालिसिस (खून का डायालिसिस या पेट का डायालिसिस) और किडनी प्रत्यारोपण ही हैं।
डायालिसिस
किडनी की फिल्टर करने एवं अपशिष्ट उत्पादों को निकालने एवं इलेक्ट्रोलाइट संतुलन को बनाए रखने की क्षमता में उल्लेखनीय कमी को किडनी फेल्योर कहते है। खून में क्रीएटिनिन और रक्त यूरिया नाइट्रोजन की मात्रा में वृध्दि का तात्पर्य किडनी की खराबी से होता है।

डायालिसिस
डायालिसिस एक छानने की प्रक्रिया है जो शरीर से अपशिष्ट उत्पादों और अतिरिक्त तरल पदार्थों को निकालती है। जब किडनी अपने कार्य को पूर्णरूप से करने में असमर्थ हो जाती हैं। तब शरीर में अनावश्यक उत्सर्जी पदार्थों एवं पानी की मात्रा बहुत ज्यादा बढ़ जाती है। डायालिसिस, सी.के.डी. का उपचार नहीं है किन्तु एक सहारा है। किडनी के नाकाम होने पर कृत्रिम विधि द्वारा रक्त से अपशिष्ट उत्पादों और अतिरिक्त तरल पदार्थ को हटाने वाले उपचार का नाम डायालिसिस है। जब सी.के.डी. अंतिम चरण पर होता है तो रोगी को आजीवन नियमित डायालिसिस के उपचार की आवश्यकता होती है। अगर किडनी प्रत्यारोपण सफलतापूर्वक हो चूका है तब मरीज को इसकी आवश्यकता नहीं होती है।
डायालिसिस दो प्रकार का होता है
हीमोडायालिसिस – (खून की मशीनों द्वारा सफाई)
यह क्रोनिक किडनी फेल्योर के मरीजों के लिए सबसे व्यापक रूप से इस्तेमाल होने वाला डायालिसिस है। इस प्रकार के डायालिसिस में हीमोडायालिसिस मशीन की मदद से कृत्रिम किडनी (डायलाइजर) में खून शुद्ध किया जाता है। ए. वी. फिस्च्युला अथवा डबल ल्यूमेन केथेटर की मदद से शरीर में से शुद्ध करने के लिए खून निकाला जाता है। मशीन की मदद से खून शुद्ध होकर पुनः शरीर में वापस भेज दिया जाता है, जिसमें हीमोडायालिसिस मशीन (HD Machine) की सहायता से अपशिष्ट उत्पादों, अधिक तरल पदार्थ और नमक को रक्त से हटाया जाता है। तबियत तंदुरुस्त रखने के लिए मरीज को नियमित रूप से सप्ताह में दो से तीन बार हीमोडायालिसिस कराना जरूरी है। हीमोडायालिसिस के दौरान मरीज पलंग पर आराम करते हुए सामान्य कार्य कर सकता है, जैसे – नाश्ता करना, टीवी देखना इत्यादि। नियमित रूप से डायालिसिस कराने पर मरीज सामान्य जीवन जी सकता है। सिर्फ डायालिसिस कराने के लिए उन्हें अस्पताल की हीमोडायालिसिस यूनिट में आना पड़ता है, जहाँ चार घंटे में यह प्रक्रिया पूरी हो जाती है। वर्तमान समय में, हीमोडायालिसिस कराने वाले मरीजों की संख्या पेट के डायालिसिस (सी. ए. पी. डी.) के मरीजों से ज्यादा है। क्रोनिक किडनी फेल्योर (सी.के.डी.) के उपचार का पूर्णकालिक विकल्प किडनी प्रत्यारोपण ही है।
पेरीटोनियल डायालिसिस
पेरीटोनियल डायालिसिस – पेट का डायालिसिस (सी. ए. पी. डी.) इस डायालिसिस में मरीज अपने घर पर ही मशीन के बिना डायालिसिस कर सकता है। सी. ए. पी. डी. में खास तरह की नरम एवं कई छेदों वाली नली (केथेटर) सामान्य ऑपरेशन द्वारा पेट में डाली जाती है। इस नली के द्वारा विशेष द्रव (P. D. Fluid) पेट में डाला जाता है। कई घण्टों के बाद जब इस द्रव को ऐसी नली से बाहर निकाला जाता है, तब इस द्रव के साथ शरीर का अनावश्यक कचरा भी बाहर निकल जाता है। इस क्रिया में हीमोडायालिसिस से अधिक खर्च एवं पेट में संक्रमण का खतरा बना रहता है। सी. ए. पी. डी. की यह दो मुख्य कमियाँ हैं।
पेशाब का संक्रमण
पेशाब में जलन होना, बार – बार पेशाब आना, पेडू में दर्द होना, बुखार आना, इत्यादि पेशाब के संक्रमण के लक्षण हैं। पेशाब की जाँच में मवाद का होना रोग का निदान करता है। पेशाब के संक्रमण के कई रोगी उपयुक्त एंटीबायोटिक से उपचार होने पर पूर्णतः अच्छे हो सकते हैं। बच्चों में इस रोग के उपचार के दौरान विशेष देखभाल की आवश्यकता रहती है। बच्चों में पेशाब के संक्रमण के निदान में विलंब एवं अनुचित उपचार के कारण किडनी को गंभीर नुकसान (जो ठीक न हो सके) पहुँचने का भय रहता है। यदि मरीज में बार – बार पेशाब का संक्रमण हो, तो मरीज को मूत्रमार्ग में अवरोध, पथरी, मूत्रमार्ग के टी. बी. आदि के निदान के लिए जाँच कराना आवश्यक है। बच्चों में पेशाब का संक्रमण बार – बार होने का मुख्य कारण वी. यू. आर. (Vesicouretral Reflux) है। वी. यू. आर. एक जन्मजात असामान्यता है। इसमें पेशाब, मूत्राशय से उल्टा मूत्रवाहिनी में किडनी की ओर जाता हैं क्योंकि मूत्राशय और मूत्रवाहिनी के बीच के वाल्व में जन्मजात क्षति होती है। इसमें कुछ वर्षों में किडनी ख़राब हो सकती है। बच्चों में पेशाब के संक्रमण की अधूरी जाँच और उपचार से किडनी इस तरह खराब हो सकती है की पुनः ठीक न हो सके।
नेफ्रोटिक सिन्ड्रोम
किडनी का यह रोग भी अन्य उम्र की तुलना में बच्चों में अधिक पाया जाता है। इस रोग का मुख्य लक्षण शरीर में बार – बार सूजन का आना है। इस रोग में पेशाब में प्रोटीन का जाना, खून परीक्षण की रिपोर्ट में प्रोटीन का कम होना और कोलेस्ट्रोल का बढ़ जाना होता है। इस बीमारी में खून का दबाव नहीं बढ़ता है और किडनी खराब होने की संभावना बिलकुल कम होती है। यह बीमारी दवा लेने से ठीक हो जाती है। परन्तु बार – बार रोग का उभरना, साथ ही शरीर में सूजन का आना नेफ्रोटिक सिन्ड्रोम की विशेषता है। इस प्रकार रोग का लम्बे समय (कई वर्षों) तक चलना बच्चे और परिवार के लिए धैर्य की कसौटी के समान है।
पथरी की बीमारी
पथरी एक महत्वपूर्ण किडनी रोग है। सामान्यतः किडनी, मूत्रवाहिनी और मूत्राशय में पथरी होती है। इस रोग के मुख्य लक्षणों में पेट में असहनीय दर्द होना, उल्टी – उबकाई आना, पेशाब लाल रंग का होना इत्यादि है। इस बीमारी में कई मरीजों को लम्बे समय से पथरी होते हुई भी दर्द नहीं होता है, या कोई भी लक्षण नहीं होते हैं जिसे”साइलेन्ट स्टोन” कहते हैं। पथरी के निदान के लिए पेट का एक्सरे एवं सोनोग्राफी सबसे महत्वपूर्ण जाँच है। छोटी पथरी अधिक पानी पीने से अपने आप प्राकृतिक रूप से निकल जाती है।
किडनी की पथरी बिना किसी लक्षण के सालों रह सकती है।
यदि पथरी के कारण बार – बार ज्यादा दर्द हो रहा हो, बार – बार पेशाब में संक्रमण, खून अथवा मवाद आ रहा हो और पथरी से मूत्रमार्ग में अवरोध होने की वजह से किडनी को नुकसान होने का भय हो, तो उसे निकाल देना चाहिए। मरीज में सामान्यतः पथरी निकालने के लिए प्रचलित पध्दतियों में लीथोट्रीप्सी, दूरबीन (पी. सी. एन. एल.), सिस्टोकोपी और यूरेटरोस्कोपी द्वारा उपचार और ऑपरेशन द्वारा पथरी निकालना इत्यादि है। 50-80% मरीजों में पथरी प्राकृतिक रूप से फिर हो सकती है। इसके लिए ज्यादा पानी पीना, आहार में भी परहेज रखना और समयानुसार डॉक्टर से जाँच कराना जरूरी और लाभदायक है।
प्रोस्टेट की बीमारी – बी. पी. एच.
प्रोस्टेट ग्रंथी केवल पुरूषों में होती है। यह मूत्राशय के नीचे स्थित होती है। मूत्राशय से पेशाब बाहर निकालने वाली नली मूत्रनलिका के शुरू का भाग प्रोस्टेट ग्रंथि के बीच से निकलता है। 50 साल की उम्र के बाद प्रोस्टेट ग्रंथी का आकर बढ़ने लगता है। बड़ी उम्र के पुरूषों में प्रोस्टेट का आकार बढ़ने के कारण मूत्रनलिका पर दबाव आता है और मरीज को पेशाब करने में तकलीफ होती है, इसे बी. पी. एच. (बिनाइन प्रोस्टेटिक हाइपरट्रोफी) कहते है। रात को कई बार पेशाब करने उठना, पेशाब की धार पतली आना, जोर लगाने पर पेशाब का आना आदि बी. पी. एच. के संकेत हैं।
मलाशय में एक उंगली डालकर परीक्षण और अल्ट्रासाउंड दो प्रमुख विधियाँ हैं, जिससे बी.पी. एच. का निदान हो सकता है। रोगियों की एक बड़ी संख्या का जिनमें हल्के और मध्यम बी.पी. एच. के लक्षण होते हैं, उनका दवाओं से ही लम्बी अवधि के लिए प्रभावी ढंग से इलाज किया जा सकता है। गंभीर लक्षण और बहुत बड़ी प्रोटेस्ट होने पर कई रोगियों में प्रोस्टेट ग्रंथी को दूरबीन या एन्डोस्कोपिक विधि से हटाने की आवश्यकता हो सकती है।बड़ी उम्र के पुरूषों में पेशाब करने में होने वाली तकलीफ का मुख्य कारण बी. पी. एच. हो सकता है। किडनी खराब हो तो ऎसे खाद्य-पदार्थ न खाएं, जिनमें नमक व फॉस्फोरस की मात्रा कम हो, तरल चीजें सीमित मात्रा में ही लें हमारी दोनों किडनियां एक मिनट में 125 मिलिलीटर रक्त का शोधन करती हैं। ये शरीर से दूषित पदार्थो को भी बाहर निकालती हैं। इस अंग की क्रिया बाधित होने पर विषैले पदार्थ बाहर नहीं आ पाते और स्थिति जानलेवा होने लगती है जिसे गुर्दो का फेल होना (किडनी फेल्योर) कहते हैं। इस समस्या के दो कारण हैं, एक्यूट किडनी फेल्योर व क्रॉनिक किडनी फेल्योर। क्रॉनिक किडनी फेल्योर शुरूआत में इस रोग के लक्षण स्पष्ट नहीं होते लेकिन धीरे-धीरे थकान, सुस्ती व सिरदर्द आदि होने लगते हैं। कई मरीजों में पैर व मांसपेशियों में खिंचाव, हाथ-पैरों में सुन्नता और दर्द होता है। उल्टी, जी-मिचलाना व मुंह का स्वाद खराब होना इसके प्रमुख लक्षण हैं।
कारण : ग्लोमेरूनेफ्रायटिस, इस रोग में किडनी की छनन-यूनिट (नेफ्रॉन्स) में सूजन आ जाती है और ये नष्ट हो जाती है। डायबिटीज व उच्च रक्तचाप से भी किडनी प्रभावित होती है। पॉलीसिस्टिक किडनी यानी गांठें होना, चोट, क्रॉनिक डिजीज, किडनी में सूजन व संक्रमण, एक किडनी शरीर से निकाल देना, हार्ट अटैक, शरीर के किसी अन्य अंग की प्रक्रिया में बाधा, डिहाइड्रेशन या प्रेग्नेंसी की अन्य गड़बडियां।
एक्यूट किडनी फेल्योर
पेशाब कम आना, शरीर विशेषकर चेहरे पर सूजन, त्वचा में खुजली, वजन बढ़ना, उल्टी व सांस से दुर्गध आने जैसे लक्षण हो सकते हैं। कारण: किडनी में संक्रमण, चोट, गर्भवती में टॉक्सीमिया (रक्त में दूषित पदार्थो का बढ़ना) व शरीर में पानी की कमी। आयुर्वेद में इलाज आयुर्वेद में दोनों किडनियों, मूत्रवाहिनियों और मूत्राशय इत्यादि अवयवों को मूत्रवह स्रोत का नाम दिया गया है। पेशाब की इच्छा होने पर भी मूत्र त्याग नहीं करना और खानपान जारी रखना व किडनी में चोट लगना जैसे रोगों को आयुर्वेद में मूत्रक्षय एवं मूत्राघात नाम से जाना जाता है।
आयुर्वेदिक ग्रंथ “माधव निदान” के अनुसार रूक्ष प्रकृति व विभिन्न रोगों से कमजोर हुए व्यक्ति के मूत्रवह में पित्त और वायु दोष होकर मूत्र का क्षय कर देते हैं जिससे रोगी को पीड़ा व जलन होने लगती है, यही रोग मूत्रक्षय है। इसमें मूत्र बनना कम या बंद हो जाता है।
उपाय : तनाव न लें। नियमित अनुलोम-विलोम व प्राणायाम का अभ्यास करें।
ब्लड प्रेशर ब्लड प्रेशर बढ़ने पर नमक, इमली, अमचूर, लस्सी, चाय, कॉफी, तली-भुनी चीजें, गरिष्ठ आहार, अत्यधिक परिश्रम, अधिक मात्रा में कसैले खाद्य-पदार्थ खाने, धूप में रहने और चिंता से बचें। काला नमक खाएं, इससे रक्त संचार में अवरोध दूर होता है।
किडनी:- किडनी खराब हो तो ऎसे खाद्य-पदार्थ न खाएं, जिनमें नमक व फॉस्फोरस की मात्रा कम हो। पोटेशियम की मात्रा भी नियंत्रित होनी चाहिए। ऎसे में केला फायदेमंद होता है। इसमें कम मात्रा में प्रोटीन होता है। तरल चीजें सीमित मात्रा में ही लें। उबली सब्जियां खाएं व मिर्च-मसालों से परहेज करें।
औषधियां:- आयुर्वेदिक औषधियों पुनर्नवा मंडूर, गोक्षुरादी गुग्गुलु, चंद्रप्रभावटी, श्वेत पर्पटी, गिलोय सत्व, मुक्ता पिष्टी, मुक्तापंचामृत रस, वायविडंग इत्यादि का सेवन विशेषज्ञ की देखरेख में ही करें। नियमित रूप से एलोवेरा, ज्वारे व गिलोय का जूस पीने से हीमोग्लोबिन बढ़ता है।
डाइट कैसी हो:- गाजर, तुरई, टिंडे, ककड़ी, अंगूर, तरबूज, अनानास, नारियल पानी, गन्ने का रस व सेब खाएं लेकिन डायबिटीज है तो गन्ने का रस न पिएं। इन चीजों से पेशाब खुलकर आता है। मौसमी, संतरा, किन्नू, कीवी, खरबूजा, आंवला और पपीते खा सकते हैं। रात को तांबे के बर्तन में रखा पानी सुबह पिएं।
सिरम क्रेटनीन व यूरिक एसिड बढ़ने पर
रोगी प्रोटीन युक्त पदार्थ जैसे मांस, सूखे हुए मटर, हरे मटर, फै्रंचबीन, बैंगन, मसूर, उड़द, चना, बेसन, अरबी, कुलथी की दाल, राजमा, कांजी व शराब आदि से परहेज करें। नमक, सेंधा नमक, टमाटर, कालीमिर्च व नींबू का प्रयोग कम से कम करें। इस रोग में चैरी, अनानास व आलू खाना लाभकारी होता है। लोक कहावत में सेहत का सार एक लोक-कहावत के अनुसार- “खाइ के मूतै सोवे बाम। कबहुं ना बैद बुलावै गाम” यानी भोजन करने के बाद जो व्यक्ति मूत्र-त्याग करता है व बायीं करवट सोता है, वह हमेशा स्वस्थ रहता है और वैद्यों या डॉक्टरों की शर